सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

बन्दिश

उसने जब भी मेरे पीने पर बंदिशें रखी
हम ने भी छुप कर पहले से ज्यादा चक्खी।
मैं ना भी पीता विश्वास वो नहीं करती
अक्सर बीवीयां होती ही हैं आदतन शक्की।

गई जो मायके बडी अदा से वो बोली
कसम है तुमको जो पीछे से बोतल खोली
हम उस कसम का हम पूरा खयाल रखते हैं
रख के तस्वीर सामने ही मय को चखते हैं।

ये बात सच है बीवी से डरना पडता है
हिदायतों को उन की अम्ल करना पडता है
वो दिन को रात कहें अपना क्या बिगडता है
बस आंख को जरा सा बंद करना पडता है।
(अमर पथिक)

शनिवार, 23 मई 2009

कहां तेरी मेरी रीस प्रिये
है दिल में बस ये टीस प्रिये
...

तुम सुपर-फास्ट राज़धानी हो,
मैं अदना सा इक स्टेशन हूँ
तुम ओपन -हार्ट् सर्ज़री हो,
मैं मायनर सा औपरेशन हूं।

तुम कोट्गढ का बागीचा,
मैं बबूल की बेबस झाड़ी,
तुम पब्लिक स्कूल मंसूरी का,
मैं पटना की आँगन बाडी ,


तुम व्यस्त चोराहा सोलन का,
मैं पगडंडी हूं गांव की,
तुम हीरों जड़ा हो हार प्रिये

में टूटी चप्पल पावं की।....

तुम बड़ॆ साहब की पी-ए हो,
मैं चपरासी हूं शाला का,
परिचारिका तुम एयर-इण्डिया की,
मैं नौकर हूं मधूशाला का।...


तुम होली का गुलाल प्रिये,
मैं गीला पठाका दीवाली का,
तुम छप्पन भोग प्रसाद प्रिये,
मैं हूं बैंगन किसी थाली का।

तुम गोविन्द-सागर झील प्रिये,
मैं तो बरसाती नाला हूं,
तुम माल रोड का होटल तो,
मैं पंचायती धर्मशाला हूं।


तुम शाही-पनीर की हो सब्जी,
मैं उडद की साबुत दाल प्रिये,
तुम देहरादून का घंटा-घर,
मैं हूं टिहरी गढ्वाल प्रिये।...


तुम आगरा का हो ताजमहल,
मैं जर्जर् किला पुराना हूं,
तुम स्विस्-बैंक का लाकर हो,
मैं गला-सडा तह्खाना हूं।


तुम रोलस-रोय्स बर्मिंघम की,
मैं लम्ब्रेटा सन पचपन का,
तुम कैड्बरी चाक्लेट प्रिये,
मै लक्कड-चूस हूं बचपन का।

तुम शैम्पैन विलायती हो,
मैं देहात की कच्ची दारू,
तुम वैक्यूम पंप विलायती हो,
मै सींखों वाला हूं झाड़ू,


तुम इन्द्र-लोक की मेनका ,
मै भान्ड हूं चंडू-खाने का,
तुम स्कोटलैंड् यार्ड की अफसर हो,

मैं मुंशी गढ्खल थाने का।

तुम जार्ज-बुश अमरीका के,
मै बेचारा सद्दाम प्रिये,
तुम एच-आई-वी का वायरस हो,
मैं बे-मौसम जुखाम प्रिये...

तुम करवा चौथ का चादं प्रिये,
मैं उल्का-पिंड धुएं वाला,
तुम शीतल पवन हो शिमला की,
मैं तपती लू की इक ज्वाला।

तुम ऐश्वर्या सी दिखती हो,
मैं पूरा जानी-वाकर हूं,
तुम क्रेडिट-कार्ड अम्बानी का,
मैं कंगाल बैंक का लाकर हूं।...


तुम लास-वेगास का ज़ैक-पौट्
मैं चूरण वाली पर्ची हूं,
तुम पेज़ -थ्री की मौडल हो,
मैं नुक्कड्वाला दर्ज़ी हूं।


तुम क्रिक्केट का हो मैच प्रिये,
मै गली का गुल्ली-डंडा हूं,
तुम बाला जी के ट्र्स्टी हो,
मैं हरिद्वार का पंडा हूं...।


नहीं तेरी-मेरी रीस प्रिये,
है दिल मैं बस ये टीस प्रिये..


इस रचना को दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ

मंगलवार, 5 मई 2009

लक्ष्मी-दत्त शर्मा का वसीयत-नामा


बहुत दिनों से दुष्टों के सरताज़ पंडित लक्ष्मी-दत्त शर्मा जी गायब
थे।कल ही मिले तो छूटते ही बोले,"मैं ज़रा अपना वसीयत-नामा
लिखने मैं व्यस्त था इस लिये मिल न सका"।लक्ष्मी जी यूं तो
किसी परिचय के मोह्ताज़ नही लेकिन जैसा कि मैने पहले भी
बताया' आप आकाश-वाणी और दूर-दर्शन के संवाद-दाता होने के
साथ एक उच्च कोटी के साहित्य-कार भी हैं ।दुष्ट-दर्शन मंच
पन्डित जी की प्रसव्-पीड़ा का ही परिणाम है।आप इन से ज़रा सावधान
रहें इसलिये पंडित जी की तस्वीर ऊपर प्रेषित कर रहा हूँ।
"वसीयत-नामा"पुरुष-प्रधान समाज़ के लिये एक् करारा व्यंग्य है
जिनके खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं
वसीयत नामा
एक दिन कवि ह्र्दय नें सोचा,
जो जीवन भर न पा सके
वह अपनी वसीयत में लिख देंगे
शायद मरने के बाद लोग
अंतिम इच्छा समझ कर ही
पूरी कर देंगे।
यही सोच हमने अपनी वसीयत बना डाली
और क्रम-वार सब शरतें लिख डाली।
मरने के बाद हमारे मृत शरीर के पास
कोई पुरुष ना आये,
केवल अपने घर की महिलायें ही भिजवायें।
महिलाओं की उम्र इस काम में आडे नही आयेंगी,
कुंवारी लड़्कियां हों तो भी बात बन जायेगी।
जो हमें नहलायें-धुलायें, नये कपड़े पहनायें,
नये दुल्हे सा सजायें।
शव-यात्रा में पुरुष की
छाया भी पास ना आये।
शव-यात्रा में एक-से एक
स्वप्न सुन्दरियां बुलवाई जायें',
घाट पर ब्युटी-कांटेस्ट करवाया जाये,
और ब्युटी-क्वीन द्वारा ही मेरा
दाह-संस्कार् करवाया जाये।
इतना लिखने के बाद हम
नींद की आगोश में खो गये,
पड़ोसियों ने देखा तो रो दिये,
हमें हिलाया-डुलाया ,बहुत ज़ोर लगाया,
पर ,हम भला ठहरे कुम्भकरण के भाया,
इस पर हमारे खास पडोसी बोले,
"लगता है शायद चल बसे हैं,
लेकिन प्राण अब भी कविता मैं फंसे हैं।
मरते-मरते भी क्या तुकबंदी जोड़ी है,
जाते-जाते भी वसीयत लिख छोडी है।"
लिखा है," सिर्फ महिलायें शव्-यात्रा मैं आयेंगी"
इस पर दूसरा बोला,"फिर तो तेरी ही जायेगी,
मेरी गयी तो काम से ही जायेगी"
एक अन्य पडोसी तिलमिला कर बोला,
"ये साला तो आशिक़ लगता है,
जो जीते जी तो शादी न करवायी,
गैरों की बीवियों पर ही नज़र दौड़ायी,
अब मर कर भी इसे चैन नही आ रहा,
जो हमारी बीवियों से अंतेष्टी करवा रहा"
लेकिन पडोसी बुढिया को दया आयी, बोली!
"कायरो। अब तुम क्युं डरते हो,
जब औरत मरती है तब तुम भी तो
यही करते हो।
अगर महिलायें शव-यात्रा पर नहीं जायेंगी,
तो पुरुषों की बराबरी कैसे कर पायेंगी"।
तभी एक महिला बोली,"हमने पुरुष के कन्धे
से कन्धा मिलाने का वादा किया है,
मुर्दा उठाने का ठेका थोडे ही लिया है,
और यदि हमें आरक्षण देना ही है तो,
पहले संसद मे दो फिर मुर्दा उठाने को कहो।"
बुढिया की बहु बोली,
" लगता है आज सास नही मानेगी,
बे-वजह हमें अधर्म में डालेगी।
हमने कितने अरसे से घर के
बरतन तक नही धोये हैं,
फिर इस लाश को कैसे धोयेंगे,
चलो।अपनी आया से ही धुलवा लेते हैं,
वो ज्यादा पैसे भी नही लेगी,
और इसे ठंडे पानी से धो भी देगी।"
आया ने जब ठन्डे पानी से हमें नहलाया,
तो मैं होश आ कर चिल्लाया।
बाहर से एक सज्जन बोले,"भाया,
भीतर जा कर देखो,
मैं न कहता था कि वह ज़रूर उठ बैठेगा,
शुक्र है यहीं पर उठ बैठा है,
शमशान मैं न जाने क्या-क्या गुल खिलाता,
वहां इन अबलाओं को इस से कौन बचाता।
भय्या। हम अपनी बीवियों को
इस समस्या में नही फंसायेंगे,
राजनीतिक पार्टियों की तरह,
आरक्षण मुद्दे पर बहाने नही बनायेंगे।"
इस मुद्दे को लट्काने मैं ही भलायी है,
वर्ना हर तरफ हमारी ही रुसवायी है......






शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

हेमंत अत्री की लवली सी मेडम्

हेमंत अत्री
इस से पहले कि लक्ष्मी जी यमराज़ को मना लें आप को एक अन्य दुष्ट का व्योरा दिये देते हैं जी हां।
आप का अन्दाज़ा बिलकुल सही है ये जो भोली सूरत वाला चेहरा जो आप उपर देख रहे हैं ये अति-दुष्ट व्यक्ति पेशे से पत्रकार बहुमुखि-प्रतिभा का मालिक होने के साथ-साथ हर मंच की रौनक हैं आप पहाड़ी
और हिन्दी दोनों में दखल देनें की क्षमता रखते हैं। पेश है इन की लवली सी मैडम........










शनिवार, 28 मार्च 2009

दुष्ट- परिचय्

आदि-काल से पृथ्वी पर दुष्टों की भरमार रही है। और भगवान नें अलग-अलग रूप में अवतार ले कर उन का संहार किया है।कलयुग में तो हर तरफ दुष्टों का ही राज है और भगवान के लिये भी काफी मुश्किल की घडी है। लेकिन जिन दुष्टों की कली आज खुलने जा रही है वो ज़रा लीक से हट कर हैं उनके आक्रमण का केन्द्र-बिन्दु आज की भागती-दौडती जिन्दगी से पैदा हुआ अवसाद है ।इस अवसाद रूपी दानव के दुश्मन, ये पांच दुष्ट करीब पांच साल पूर्व जब मिले और एक मंच बना कर हिमाचल के छोटे-छोटे गांवों में जा कर लोगों को हास्य-विनोद के माध्यम से हंसाने का प्रयास किया तो लोगों के साथ-साथ दुष्टों को भी आनन्द की अनुभूती हुई।एक ज़माना था जब हास्य-रस के कार्यक्रमों की भरमार रहा करती थी लेकिन आज ये टेलीविजन या रेडियो में भी कभी-कभी ही नज़र आते हैं।आज का इंसान आटे-दाल और भविष्य के सवाल पर व्यस्तता ओढे बैठा है और हास्य निचुडे निम्बू की तरह हो गया है।इस से पहले कि ये भी सूख जाये आईए आप का तआरुफ इन दुष्टों से करवा दिया जाये।हमारी कोशिश है कि इस तरह के अनेक दुष्ट पूरे संसार में फैल जायें और अव्साद का ज़हर कम हो सके।आईए मिलते हैं एक अव्वल दर्ज़े के दुष्ट से जो अपने-आप में ही एक अजूबा है,जी हां मेरा इशारा पंडित लक्ष्मी दत्त शर्मा की तरफ है पेशे से पत्रकार आप अपने व्यंग बाणों से काफी गहरे उतर जाते हैं और हिंदी और पहाड़ी में दोनो में महारत रखते हैं।आप इनकी भोली सूरत पर कदापि ना जायें और ज़रा सावधान हो जायें। लक्ष्मी जी के तरकश में हर रंग के तीर हैं आप बस अपनी सीट बेल्ट से बन्धे रहिये। हम आपको ऐसी शव-यात्रा पर ले जा रहे हैं जिस मे पुरुष प्रधान समाज में उन के वर्चस्व को ही चुनौती दी गयी है पेश है लक्ष्मी दत्त शर्मा का पहला पठाखा........