मंगलवार, 5 मई 2009

लक्ष्मी-दत्त शर्मा का वसीयत-नामा


बहुत दिनों से दुष्टों के सरताज़ पंडित लक्ष्मी-दत्त शर्मा जी गायब
थे।कल ही मिले तो छूटते ही बोले,"मैं ज़रा अपना वसीयत-नामा
लिखने मैं व्यस्त था इस लिये मिल न सका"।लक्ष्मी जी यूं तो
किसी परिचय के मोह्ताज़ नही लेकिन जैसा कि मैने पहले भी
बताया' आप आकाश-वाणी और दूर-दर्शन के संवाद-दाता होने के
साथ एक उच्च कोटी के साहित्य-कार भी हैं ।दुष्ट-दर्शन मंच
पन्डित जी की प्रसव्-पीड़ा का ही परिणाम है।आप इन से ज़रा सावधान
रहें इसलिये पंडित जी की तस्वीर ऊपर प्रेषित कर रहा हूँ।
"वसीयत-नामा"पुरुष-प्रधान समाज़ के लिये एक् करारा व्यंग्य है
जिनके खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं
वसीयत नामा
एक दिन कवि ह्र्दय नें सोचा,
जो जीवन भर न पा सके
वह अपनी वसीयत में लिख देंगे
शायद मरने के बाद लोग
अंतिम इच्छा समझ कर ही
पूरी कर देंगे।
यही सोच हमने अपनी वसीयत बना डाली
और क्रम-वार सब शरतें लिख डाली।
मरने के बाद हमारे मृत शरीर के पास
कोई पुरुष ना आये,
केवल अपने घर की महिलायें ही भिजवायें।
महिलाओं की उम्र इस काम में आडे नही आयेंगी,
कुंवारी लड़्कियां हों तो भी बात बन जायेगी।
जो हमें नहलायें-धुलायें, नये कपड़े पहनायें,
नये दुल्हे सा सजायें।
शव-यात्रा में पुरुष की
छाया भी पास ना आये।
शव-यात्रा में एक-से एक
स्वप्न सुन्दरियां बुलवाई जायें',
घाट पर ब्युटी-कांटेस्ट करवाया जाये,
और ब्युटी-क्वीन द्वारा ही मेरा
दाह-संस्कार् करवाया जाये।
इतना लिखने के बाद हम
नींद की आगोश में खो गये,
पड़ोसियों ने देखा तो रो दिये,
हमें हिलाया-डुलाया ,बहुत ज़ोर लगाया,
पर ,हम भला ठहरे कुम्भकरण के भाया,
इस पर हमारे खास पडोसी बोले,
"लगता है शायद चल बसे हैं,
लेकिन प्राण अब भी कविता मैं फंसे हैं।
मरते-मरते भी क्या तुकबंदी जोड़ी है,
जाते-जाते भी वसीयत लिख छोडी है।"
लिखा है," सिर्फ महिलायें शव्-यात्रा मैं आयेंगी"
इस पर दूसरा बोला,"फिर तो तेरी ही जायेगी,
मेरी गयी तो काम से ही जायेगी"
एक अन्य पडोसी तिलमिला कर बोला,
"ये साला तो आशिक़ लगता है,
जो जीते जी तो शादी न करवायी,
गैरों की बीवियों पर ही नज़र दौड़ायी,
अब मर कर भी इसे चैन नही आ रहा,
जो हमारी बीवियों से अंतेष्टी करवा रहा"
लेकिन पडोसी बुढिया को दया आयी, बोली!
"कायरो। अब तुम क्युं डरते हो,
जब औरत मरती है तब तुम भी तो
यही करते हो।
अगर महिलायें शव-यात्रा पर नहीं जायेंगी,
तो पुरुषों की बराबरी कैसे कर पायेंगी"।
तभी एक महिला बोली,"हमने पुरुष के कन्धे
से कन्धा मिलाने का वादा किया है,
मुर्दा उठाने का ठेका थोडे ही लिया है,
और यदि हमें आरक्षण देना ही है तो,
पहले संसद मे दो फिर मुर्दा उठाने को कहो।"
बुढिया की बहु बोली,
" लगता है आज सास नही मानेगी,
बे-वजह हमें अधर्म में डालेगी।
हमने कितने अरसे से घर के
बरतन तक नही धोये हैं,
फिर इस लाश को कैसे धोयेंगे,
चलो।अपनी आया से ही धुलवा लेते हैं,
वो ज्यादा पैसे भी नही लेगी,
और इसे ठंडे पानी से धो भी देगी।"
आया ने जब ठन्डे पानी से हमें नहलाया,
तो मैं होश आ कर चिल्लाया।
बाहर से एक सज्जन बोले,"भाया,
भीतर जा कर देखो,
मैं न कहता था कि वह ज़रूर उठ बैठेगा,
शुक्र है यहीं पर उठ बैठा है,
शमशान मैं न जाने क्या-क्या गुल खिलाता,
वहां इन अबलाओं को इस से कौन बचाता।
भय्या। हम अपनी बीवियों को
इस समस्या में नही फंसायेंगे,
राजनीतिक पार्टियों की तरह,
आरक्षण मुद्दे पर बहाने नही बनायेंगे।"
इस मुद्दे को लट्काने मैं ही भलायी है,
वर्ना हर तरफ हमारी ही रुसवायी है......






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